Sunday 25 September 2016

कैसे बताती हैं पूरी दुनिया की घडिय़ां एक जैसा समय

हर घड़ी एक जैसा ही समय क्यों बताती है ! क्या कभी इसके बारे में सोचा है ? हो सकता है यह सवाल आपके दिमाग में आया ही न हो। तो चलिए आज इसी पर बात करते हैं।

 माना जाता जाता है कि समय कि समय का जन्म 13.6 बिलियन साल पहले बिग बैंग नाम की एक घटना के बाद हुआ था। लेकिन इसको लेकर दो विरोधी विचार हैं।
एक के अनुसार- समय इस ब्रह्मांड का आधारभूत हिस्सा है। मतलब इसका जन्म सृष्टि के साथ ही हुआ है। दूसरा विचार कहता है कि समय को न तो मापा जा सकता है और न ही रोका जा सकता है। ऐसे में दोनों अपने अपने ढेर सारे तर्क देते हैं लेकिन सही क्या है-गलत क्या है, इसका फैसला आज तक नहीं हो पाया है। 

लगभग 6000 साल पहले लोगों को जरूरत महसूस हुई तो उन्होंने चांद के  सहारे समय मापने का आविष्कार किया। जिसे टेंपोरल माप कहते हैं। उस समय को मिनट सकेंड और घंटों में न माप कर दिन और महीनों में मापा जाता था। धीरे-धीरे और भी सूक्ष्म तरीके से समय मापने की जरूरत ने घड़ी के आधुनिक रूप को जन्म दिया।

अब समस्या थी कि हर किसी की घड़ी एक जैसा ही समय कैसे बताए। इसके लिए 1967 में अंतरराष्ट्रीय इकाई प्रणाली ने सकेंड समय की सबसे छोटी इकाई माना। तय किया गया कि, सीजियम-133 का परमाणु एक बार कंपन करने में जितना समय लेता है, वही एक सकेंड होगा। इस तरह एक सेकेंड 9192631770 विकिरण अंतराल के बराबर बराबर होता है। सीजियम घड़ी को अविश्वसनीय रूप से त्रुटि रहित माना जाता है, हालांकि ऐसा है नहीं। यह घड़ी 30 दिन में एक नैनो सकेंड धीमी हो जाती है। इसी कारण यह साल 1 सकेंड अधिक लंबा हो गया है।

जर्मनी के रिसर्चरों ने मानक घड़ी को पूरी तरह त्रुटि रहित करने के लिए एक ट्रोंटियम नाम के तत्व से नई घड़ी बनाई है। इसके परमाणु सीजियम-133 से 5000 गुुना अधिक कंपन करते हैं। ऐसे में ट्रोंटियम क्लॉक तीस दिन में अधिकतम 0.2 नैनो सेकेंड धीमी होगी। जबकि पहले सीजियम क्लॉक एक नैनो सेकेंड धीमी होती थी।

कार्बन डाई आक्साइड को बदला जा सकेगा उर्जा में

वैज्ञानिको ने काबर्न डाई ऑक्साइड को ईंधन में बदलने का तरीका खोज निकाला है। इसे उर्जा में बदलने की प्रक्रिया में सूर्य की रोशनी का इस्तेमाल किया जाएगा। यह खोज अमेरिका की अर्गोन नेशन लैबरोटरी और इलिनोइस यूनिवर्सिटी, शिकागो के रिसर्चरों ने मिलकर की है। इसमें काबर्न डाई ऑक्साइड को पहले मोनो ऑक्साइड में बदला जाएगा।

आर्गोने लैबरोटरी में केमिस्ट लैरी कटिस, कार्बन डाई ऑक्साड को वातावरण से अलग करने को बड़ी चुनौती बताते हैं। वह इसके पीछे काबर्न डाई ऑक्साइड का अपेक्षाकृत बेहद कम प्रतिक्रिया करना बताते हैं। इसके लिए कर्टिस और उनके सहयोगियों ने टंगस्टन डिसेलेनाइड नाम का कंपाउंड खोजा है। जो कि प्रतिक्रिया में उत्प्रेरक का काम करेगा और काबर्न डाई ऑक्साइड को काबर्न मोनो आक्साइड में बदला जा सकेगा। वैज्ञानिक मोनो ऑक्साड को ईंधन में बदलने का तरीका पहीले ही इजाद कर चुके हैं।  इस प्रक्रिया में प्रकाश संश्लेषण के बुनियादी तरीकों का भी इस्तेमाल किया जाता है।

कर्टिस के अनुसार, पौधों को प्रकाश संश्लेषण में पानी, धूप और काबर्न डाई ऑक्साड की जरूरत होती है। हम भी इन्हीं तत्वोंं का इस्तेमाल कर रहे, बस उत्पाद भिन्न होगा। रिसर्च टीम ने प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया पूरा करने के लिए एक कृत्रिम पत्ती का निर्माण किया। पूरी प्रक्रिया तीन चरणों में संपन्न होती है। पहले चरण में प्रकाश में आने वाले फोटान कणों को ऋण आवेशित इलेक्ट्रान के जोड़ों में बदल दिया जाता है। फिर उन्हें धन आवेशित छिद्र में प्रवेश कराया जाता है। जहां वे एक दूसरे से अलग हो जाते हंै। दूसरे चरण में छिद्र पानी के अणुओं से प्रतिक्रिया करके प्रोटॉन और ऑक्सीजन के अणु बनाते हैं। अंत में प्रॉटान, इलेक्ट्रान और काबर्न डाईऑक्साइड एक दूसरे से से प्रतिक्रिया करके काबर्न मानो ऑक्साइड और पानी बनाते हैं।

आर्गोने लैब के भौतिक विज्ञानी पीटर जपोल कहते हैं, हम हाइड्रोकार्बन उत्पादों से निकलने वाले रासायनिक अपशिष्टों को दोबारा प्रयोग करने का विकल्प तलाश रहे हैं। नया तरीका महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
वातारवरण की जहरीली गैस को अब ईंधन के रूप में उपयोग किया जा सकेगा। अमेरिका की अर्गोन नेशन लैबरोटरी और इलिनोइस यूनिवर्सिटी, शिकागो के रिसर्चरों ने मिलकर इसे ईंधन में के रूप में बदलने में सफलता हासिल की है। इसके लिए पौधों में होने वाली प्रकाश संश्लेषण तकनीक जैसी विधि अपनाई जाएगी। इस पूरी प्रक्रिया में सबसे पहले कार्बन डाई ऑक्साइड को मोनो ऑक्साइड में बदला जाएगा, फिर मोनो ऑक्साइड को ईंधन के रूप में।

कार्बन डाई आक्साइड को ऊर्जा में बदलने में क्या थी चुनौती


आर्गोने लैबरोटरी में केमिस्ट लैरी कटिस कार्बन डाई ऑक्साड को वातावरण से अलग करने को बड़ी चुनौती बताते हैं। क्योंकि कार्बन डाई आक्सावह इसके पीछे काबर्न डाई ऑक्साइड का अपेक्षाकृत बेहद कम प्रतिक्रिया करना बताते हैं। इसके लिए कर्टिस और उनके सहयोगियों ने टंगस्टन डिसेलेनाइड नाम का कंपाउंड खोजा है। जो कि प्रतिक्रिया में उत्प्रेरक का काम करेगा

प्रकृति का पांचवां फंडामेंटल फोर्स

प्रकृति के रहस्य अभी भी दुनियभर के वैज्ञानिकों को अपने सामने नतमस्तक करने के लिए काफी हैं। प्रकृति के किसी एक रहस्य से पर्दा उठता है तो इंसान द्वारा बनाई गई सैकड़ों साल पुरानी कई धारणायें और सिद्धांत एक पल में ध्वस्त हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ हुआ है इस बार प्रकृति के फंडामेंटल बलों के साथ। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, इरविन के भौतिकविदों ने पांचवें फंडामेंटल बल को खोजने का दावा किया है। 
अभी तक थे चार फंडामेंटल फोर्स
1. गुरुत्वीय बल
2. इलेक्ट्रोमैग्रेटिक
3. स्ट्रांग परमाणु
4. कमजोर परमाणु  

  यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के सैद्धांतिक भौतिकविदों ने कहा कि खोजा गया सब एटॉमिक पार्टिकल एक्स बोसान यूर्निवर्स के बारे में अब तक की प्रचलित मान्यताओं  और अवधारणाओं को  बदल देगा।
नया रिसर्च जर्नल फिजिकल रिव्यू लेटर्स में प्रकाशित हुआ। इसे हंगरी के एकेडमी ऑफ साइंसेज के प्रयोगिक परमाणु भौतिकविदों द्वारा डार्क फोटॉन के बारे में जानकारी जुटाते हुए खोजा गया। डार्क फोटॉन को डार्क मैटर के तौर पर भी जाना जाता है, जिसके बारे में बेहद कम या नहीं के बारे में जानकारी है। वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्मांड के द्रव्यमान में 85 प्रतिशत हिस्सा डार्क मैटर का है।

हंगरी के रिसर्चरों ने एक रेडियोधर्मी विघटन की विसंगति का पता लगाया। उन्होंने बताया कि प्रकाश का एक कण इलेक्ट्रॉन से 30 गुना भारी होता है। फेंग ने कहा, प्रयोगकर्ता तीसरे बल को खोजने का दावा करने में अभी सक्षम नहीं हैं। उन्होंने कहा, अभी सिर्फ एक नए कण के संकेत मिले हैं। यह पदार्थ कण है या कोई बल वाहक कण, यह बात स्पष्ट नहीं है।

यूसीआई का यह काम बताता है कि यह कोई डार्क फोटान होने के बजाय फोटोग्राफिक एक्स बोसान हो सकता है। जब सामान्य इलेक्ट्रिक बल किसी इलेक्ट्रान और प्रोटान पर लगता है तो नया बोसान कण सिर्फ इलेक्ट्रान और न्यूट्रान से इंटरेक्शन करता है। जिसकी कि सीमा बेहद सीमित होती है। रिसर्च के सह लेखक टिमोथी टैट का। वे भौतिकी और खगोल विज्ञान के प्रोफेसर हैं, का कहना है, इसके पहले किसी अन्य बोसान कण को इस तरह का व्यवहार करते नहीं देखा गया।

गुरुत्वाकर्षण नियम मे आ सकता है बदलाव

पांचवें बल की बात अगर भविष्य में सही साबित हो जाती है तो, न्युटन के गुरुत्वाकर्षण नियमों को भी नए तरह से परिभाषित किया जा सकेगा। गुरुत्वाकर्षण बल काम कैसे करता है, सामान्य सापेक्षता आदि नियमों को की नई व्यख्या भी कर सकता है।

यूनिवर्सिटी ऑफ कंसास में भौतिकी और खगोल विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर क्योउंगचुल कांग के अनुूसार, यह एक आश्चर्यजनक घोषणा है। क्योंकि नए कण की जीवन अवधि और उसके द्रव्यमान से और भी कई रहस्यों से पर्दा उठ सकता है।

Saturday 27 August 2016

रूस और अमेरिका की स्पेस में वापसी

47 साल पहले नासा ने सोवियत यूनियन को अंतरिक्ष की रेस में हराया था। उसने स्पेस मिशन 11 को भेज पहली बार चांद की सतह पर मानव कदमों की चहलकदमी करवाई थी। एक लंबे अंतराल के बाद एक फिर से अमेरिकन कंपनियां लूनार की सतह पर वापसी करने की तैयारी में हैं। इस बार भी मिशन में रूस होगा, लेकिन वह कोई प्रतिद्वंदी न हीं साथी के रूप में।

हालांकि बहुत अधिक चौंकाने वाली खबर नहीं है क्योंकि दोनों देशों की कंपनियां 1993 से ही स्पेस में साथ काम कर रही हैं। जब से इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के लिए दोनों में गठबंधन हुआ था।
आईएसएस की उम्र पूरी होने को है, इसलिए दोनों देशों की स्पेस एजेंसियों का ध्यान नए प्रोजेक्टों पर है। आइएसएस 2024 में काम करना बंद कर देगा।

नासा के 2030 तक मार्स पर इंसान पहुंचाने के मिशन को देखते हुए हाल फिलहाल में उसका चंद्रमा पर वापसी करने का कोइ इरादा भले ही न लगे लेकिन मार्स मिशन में चंद्रमा का एक बड़ा हिस्सा शामिल होगा। इसे सिसलूनार स्पेस कहते है। उदाहरण के तौर पर नासा की तीन योजनाओं में दो, किसी क्षुद्र ग्रह पर कब्जा करने से सम्बंधित है। वह उन्हें पकड़कर चंद्रमा की कक्षा में डालने की योजना पर काम कर रहे हैं। इसकी संभावनाएं 2020 में भेजे जाने वाले ओरियन स्पेसक्रापफ्ट का दल तलाशेगा।

यही वजह है कि बोइंग और लॉकहीड मार्टिन जैसी बड़ी अमेरिकन एयरोनॉटिकल कंपनियां लूनार बेस स्थापित करना चाहती हैं। इसके लिए वे निकट भविष्य में नासा दबाव भी बना सकती हैं। इसके लिए उन्होनें रूसी स्पेस कंट्रैक्टर्स आरकेके एर्निर्जया और जीकेएनपीटी खरूनिश्चेव को प्रोजेक्ट में शामिल कर लिया है।
नासा की तरह इन कंपनियों का लक्ष्य चंद्रमा ही हो, यह जरूरी नहीं, लेकिन वे चंद्रमा पर एक हैबिटेट बना सकती हैं। यह आगे मार्स मिशन में पड़ाव के रूप में काम करेगा। रूसी कंपनियां इस मिशन में शामिल न हों, ऐसी संभावना बहुत कम नजर आती है, क्योंकि स्पेस में छलांग लगाने के लिए उन्नत तकनीक चाहिए। नासा द्वारा विकसित ताकतवार स्पेस लॉन्च सिस्टम की तकनीक उसके लिए काम आ सकती है।

रूसी और अमेरिकी कंपनियां अभी भले ही कहें कि लूनार सतह का उपयोग सिर्फ स्टडी के लिए होगा, लेकिन नासा इसका आगे बड़ा प्रयोग कर सकता है। वह क्षुद्र ग्रहों को खींच कर चन्द्रमा की कक्षा में लाने की योजना पर काम कर रहा है। इसके लिए 12 और 14 जुलाई को सैडियागो में रूसी और अमेरिकी कंपनियों ने आईएसस रिसर्च एंड डेवलपमेंट कॉन्फ्रेंस भी आयोजित किया था।
इस तरह राजनीति तनातनी के बावजूद स्पेस तकनीक की दिशा में दोनों देशों के एक साथ काम करने की संभावनाएं बनती नजर आ रही हैं। वैसे भी कहा ही जाता है कि विज्ञान की कोई सीमा नहीं होती। शायद यह बात विश्व की दो महा शक्तियां सच कर दें।